Thursday, June 27, 2013

शिशिर सिम्फनी का अंश - 1

अब सीख गया हूँ
बर्फीले समय में
स्लेजगाडी में नाधे गए
सधे कुत्तों की तरह
सावधान सतर्क भागते रहना
और आत्मा से बर्फ के फाहे झाड़ते रहना
और सुनता हूँ
खिडकियों का खुलना कहीं,
अलाव का जलना कहीं,
तारों का टूटना कहीं,
उम्मीदों का और जीवन का पूरा होना कहीं,
मिलना कहीं, मरना कहीं
और जनमना कहीं।

धरती के किसी कोने से उठते
शोर पर ध्यान देना
और किसी एक अकेली चीख पर भी,
आत्मसम्मोहित विद्वाताओं की तमाम किस्मो
और उजरती गुलामियों के तमाम रूपों को पहचानना,
गिलहरी की तरह
अनाज या संवेदना या दोस्ती या प्यार का
हर दाना
दोनों हाथो से थामना,
लंगर डाले नावों के रस्से
रात को चोरी से खोल देना,
अन्खुवो के फूटने की आवाज़ सुनना,
खामोश कर दी गयी ध्वनियो धरती के गर्भ से निकाल लाना,
बवंडरो में,
उन्मत्त घोड़ो की तरह भागना
और ऐसा ही बहुत कुछ
सीखता रहा हूँ लगातार
और ऐसे ही हुनरों में
महारत हासिल करता रहा हूँ।
और सबसे बढ़कर यह कि
मैं लोगों के दुखों और इच्छाओं को
पढ़ सकता हूँ
तुम्हारी आँखों की तरह
और थकान
(वेन गोग की तस्वीर)
भी पढ़ सकता हूँ
और भांप सकता हूँ
भावनाओं का हर दबाया आवेग या संकल्पों के खोलते लावे के
उमड़ने का समय
काफी हद तक
और बचपन से जारी अभ्यास
अभी भी जारी रखता हूँ कि
तरलता आँखों में कभी न आये
उमड़ने की हद तक
और असफल भी होता रहता हूँ।

शशि प्रकाश

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