Tuesday, April 23, 2024

बिखरे बिम्ब

 बिम्ब बिखरते हैं, 

गंगा में शंख और सीप नहीं अनिश्चितताओं की पोटली, लूट के पैकेट और 

पन्नी में लिपटे हथियार तैर रहे,

सूंस मर चुकीं।

नदी किनारे से संवाद नहीं कर पा रही,

संघ के बुड्ढे रक्तचाप बेहतर रखने के लिए नकली हँसी हँसते हैं,

नदी के वफ़ादार आवारा कुत्ते मालिकों के साथ आये

पालतू कुत्तों पर भौंकते हैं।

मुखौटे ही चेहरे हैं, 

बाज़ार में पटे सामानों में आत्मा है,

आह, मैं खुद को गंगा में उगते सूरज में खोजना चाहता था

पर यह क्या मिल गया?  

Tuesday, March 19, 2024

पार्टी जीवन का क़सीदा

 हमारे युग में दुर्लभ हो चुका 

एक मानवीय गुण है – सिद्धान्तनिष्ठा, 

जिसे सहज आदत बनाने के लिए 

एक ही जीवन में कई-कई बार 

फिर से जनम लेना होता है 

और कई-कई बीहड़ यात्राएँ करनी होती हैं। 

जीवन कुछ यूँ जीना 

जैसे कोई समूह गान गाया जा रहा हो, 

जैसे छापामारों की कोई टुकड़ी 

ज़िम्मेदारियाँ बाँटकर हमले की तैयारी कर रही हो 

अगले मुकाम की ओर जल्दी से जल्दी 

बढ़ने की बेचैनी के साथ 

इसके लिए कई बार अपनी ही राख से


फ़िनिक्स पक्षी की तरह पंख फड़फड़ाते हुए 

फिर-फिर जीवन में प्रवेश करना होता है। 

कई बार एक पूरा जीवन प्रतीक्षा होता है प्यार की 

और एक दूसरा जीवन मिलता नहीं 

उसका मोल समझने के लिए। 

कविता सा जीवन 

एक चिरन्तन स्वप्न होता है 

जीवन-सी कविता के पंखों से उड़ते हुए 

आजीवन हम जिसका पीछा करते हैं। 

इसी तरह सपनों की कविता 

और कविता जैसे जीवन का पीछा करते हुए 

जो क्षितिज की ओर उड़ते चले जाते हैं 

और आकाश की निस्सीम गहराइयों में 

जादू की तरह खो जाते हैं 

वे घोंसले कभी नहीं बनाते हैं।


कात्यायनी

Saturday, January 27, 2024

Mountain of Grief

 You and I are a mountain of grief... 

you and I will never meet. 

Only try at midnight to send me 

a greeting through the stars.


Anna Akhmatova

Thursday, November 23, 2023

अधूरे ख़्वाब जल रहे।

अधूरे ख़्वाब जल रहे।
जैसे कोई ग़रीब शमशान से दूर
नदी किनारे जला रहा हो
किसी अपने के मृत शरीर को।
अतीत जल रहा,
इसकी दास्ताँ यूँ है,  
एक ख़्वाब था
बादलों में रेशम बाँधना था,
दिल के रंग भरने थे,
पर अहसास हुआ
कि बादल में खँजर धँसा है,
ख़्वाब टूट रहा,
रंग चीखते हुए गिरते हैं आसमाँ से।

सहसा गुमान होता है कि
ख़्वाब ही था, सच नहीं।
क्यों आये यहाँ, शायद भूल से?
क्या एक गलती थे, प्रवृत्ति बने
और आँसू बनकर बिखर गए?
जवाब मिलता नहीं।
आँख खुली तो समुद्र किनारे थे तुम।
एक घोड़े पर सवार, घायल
जा रहे चाँद की ओर।
लोर्का की कविता भूदृश्य बन रही,
मैंने सच को नहीं छोड़ा
कविता पर भरोसा कायम है,
पर बेयकीनी ही तो दस्तूर है।

ख़्वाब ही तो सच बनाने हैं। 
दस्तूर बदलना है यही तो दावा है।
टकरा रहे दोनों तो उदासी क्यों है?
उदासी है और उसका तर्क भी है।
सफ़र जारी है,
समुद्र का नमकीन पानी
किनारे के पत्थरों पर उफनता रहता है,
टूटे ख़्वाब का सबक दिल में लिए जाग उठता हूँ मैं।

क्षितिज पर टंगा चाँद धोख़ा नहीं है।
दुनिया छलावा नहीं।
मिथक बनाकर काबू पाने के लिए है नहीं दुनिया।
बदलने की प्रक्रिया में ही समझ हासिल होगी।
झूठ और परिस्थितियों का हवाला देने में नहीं,
अपनी कमजोरियों और पराजयों को स्वीकारने में ही हिम्मत है।
रास्ता अभी लम्बा है।
अतीत जलेगा, राख बनेगा।
भविष्य रौशन करेगा।


Sunday, September 3, 2023

अतीत के टुकड़े

आकाश का नीलापन आँधी के अँधेरे में नहीं दिख रहा
बरस रहा अतीत टुकड़ों टुकड़ों में ज़मीन पर, 
पुरखों के क़िस्से, अधजले चित्र
खण्डहर और घुन खाये उपन्यास 
बिखरे हैं आसपास। 
आँख खुली स्वप्न टूटा 
पर नमी है आँखों में
अभी भी सपनों के बोझ की। 

चित्र, उपन्यास, कविताओं के टुकड़े 
शहर के कबाड़खानों में बिक रहे, 
नई सड़क से उजड़ी दुकानों पर बिक रही अभी भी किलो के भाव युद्ध और शांति, अन्ना और साथ में तुल रही हो नित्शे की ज़रथुस्ता। 

बिनता रहता हूँ ज़मीन पर पड़े अतीत के टुकड़े
तो कभी मंडी में लग रही बोली से बचा कर ले आता हूँ 
तर्क शास्त्र, सौंदर्य और राजनीति की विरासत। 
सीलना है इन्हें अपने अनुभव की ऊन में। 
खुद को समझना है 
और बदलना है
अतीत की रौशनी में
भविष्य की कल्पना में
और आज के प्रयोगों की परखनली में। 
बिखरना, जुड़ना और फिर बिखरना और फिर जुड़ना जारी है। 
हम ही चुकायेंगे अपने पुरखों की हार का बदला। 

Sunday, June 4, 2023

आँसू, स्मृति और यथार्थ

क्यों बहे थे आँसू? 

आँसुओं का स्रोत क्या है? 

बस अब बहे चले आते हैं। 


सोचकर देखा, जाना कि 

स्मृति और सपने उलझ गए हैं 

यथार्थ में। 

यथार्थ ही तर्क संगत है। 


बन्द रास्ता है जहाँ खड़ा हूँ। 

मैं अपने प्रतिद्वंदी की आलोचना करते करते खुद अपना प्रतिद्वंदी बन गया। 

विपरीत एक होते हैं। 

पाया कि उन्हें ही नहीं समझ पाया जिसे समझने का दावा था। 


बन्द रास्ते पर एक आईना रखा है।

अतीत झाँक रहा इस आईने में। 

मैं पीछे हटता हूँ। 


आँसुओं से भर जाता है पूरा शहर

मकान, सड़कें और घंटाघर सब डूब जाते हैं। 

थम जाते हैं। 

कोई ऊँची इमारत से खड़ा हो पढ़ रहा मेरी माँ की

हरे रंग की डायरी। 


उसने लिखा है

अकेलेपन से डर लगता है। 

नहीं, माँ जैसे नहीं जीना था जीवन

अकेले, घुटन भरे इंतज़ार और प्यार के बिना। 

साझा करने की थी कोशिश हमेशा ही

दुख, सुख और सपने। 


पर मैंने जाना कि 

उस डायरी का पन्ना हूँ मैं। 

रोज़ बदलती हैं इबारतें। 

यहाँ आता हूँ समय से वक़्त माँगकर। 


यथार्थ ही तर्क संगत है। 

प्रतिलिपि नहीं मैं प्रतिद्वंद्वी की। 

जो अभी यथार्थ नहीं काल्पनिक है तर्क संगत है, 

यथार्थ बन जायेगा। 


स्मृतियों में दरारे पड़ती हैं

सपने फिर पुनर्नवा होते हैं। 

पुराना मर जाता है, नया जन्मता है। 

यथार्थ अयथार्थ बन जाता है। 

आँसू तारे बन जाते हैं, 

बहते हैं, नष्ट होते हैं

स्मृतियाँ बनते हैं। 

यथार्थ से उलझकर उसे बदल देते हैं। 



Friday, June 2, 2023

इस बार...

इस बार जितनी गहरी है मेरी उदासी 

उतनी कभी न थी 

क्रोध, ज्यों जड़ीभूत अग्निपिण्ड ।

इस बार मेरी विरक्ति 

एक ठण्डी हिमशिला-सी अविचल है। 


कोई घट-बढ़ नहीं।

रुका हुआ है जैसे सब कुछ एक अर्से से । 

यह तनाव जो निरन्तर बना हुआ है 

पागल बना पाने में फिर भी

असफल है


 जो भी होगा

अब इसका नतीजा भीषण रूप से निर्णायक होगा।

एकदम नया होगा कुछ।

हवा जो एकदम रुक सी गयी है।

-शशि प्रकाश