Thursday, November 23, 2023

अधूरे ख़्वाब जल रहे।

अधूरे ख़्वाब जल रहे।
जैसे कोई ग़रीब शमशान से दूर
नदी किनारे जला रहा हो
किसी अपने के मृत शरीर को।
अतीत जल रहा,
इसकी दास्ताँ यूँ है,  
एक ख़्वाब था
बादलों में रेशम बाँधना था,
दिल के रंग भरने थे,
पर अहसास हुआ
कि बादल में खँजर धँसा है,
ख़्वाब टूट रहा,
रंग चीखते हुए गिरते हैं आसमाँ से।

सहसा गुमान होता है कि
ख़्वाब ही था, सच नहीं।
क्यों आये यहाँ, शायद भूल से?
क्या एक गलती थे, प्रवृत्ति बने
और आँसू बनकर बिखर गए?
जवाब मिलता नहीं।
आँख खुली तो समुद्र किनारे थे तुम।
एक घोड़े पर सवार, घायल
जा रहे चाँद की ओर।
लोर्का की कविता भूदृश्य बन रही,
मैंने सच को नहीं छोड़ा
कविता पर भरोसा कायम है,
पर बेयकीनी ही तो दस्तूर है।

ख़्वाब ही तो सच बनाने हैं। 
दस्तूर बदलना है यही तो दावा है।
टकरा रहे दोनों तो उदासी क्यों है?
उदासी है और उसका तर्क भी है।
सफ़र जारी है,
समुद्र का नमकीन पानी
किनारे के पत्थरों पर उफनता रहता है,
टूटे ख़्वाब का सबक दिल में लिए जाग उठता हूँ मैं।

क्षितिज पर टंगा चाँद धोख़ा नहीं है।
दुनिया छलावा नहीं।
मिथक बनाकर काबू पाने के लिए है नहीं दुनिया।
बदलने की प्रक्रिया में ही समझ हासिल होगी।
झूठ और परिस्थितियों का हवाला देने में नहीं,
अपनी कमजोरियों और पराजयों को स्वीकारने में ही हिम्मत है।
रास्ता अभी लम्बा है।
अतीत जलेगा, राख बनेगा।
भविष्य रौशन करेगा।


Sunday, September 3, 2023

अतीत के टुकड़े

आकाश का नीलापन आँधी के अँधेरे में नहीं दिख रहा
बरस रहा अतीत टुकड़ों टुकड़ों में ज़मीन पर, 
पुरखों के क़िस्से, अधजले चित्र
खण्डहर और घुन खाये उपन्यास 
बिखरे हैं आसपास। 
आँख खुली स्वप्न टूटा 
पर नमी है आँखों में
अभी भी सपनों के बोझ की। 

चित्र, उपन्यास, कविताओं के टुकड़े 
शहर के कबाड़खानों में बिक रहे, 
नई सड़क से उजड़ी दुकानों पर बिक रही अभी भी किलो के भाव युद्ध और शांति, अन्ना और साथ में तुल रही हो नित्शे की ज़रथुस्ता। 

बिनता रहता हूँ ज़मीन पर पड़े अतीत के टुकड़े
तो कभी मंडी में लग रही बोली से बचा कर ले आता हूँ 
तर्क शास्त्र, सौंदर्य और राजनीति की विरासत। 
सीलना है इन्हें अपने अनुभव की ऊन में। 
खुद को समझना है 
और बदलना है
अतीत की रौशनी में
भविष्य की कल्पना में
और आज के प्रयोगों की परखनली में। 
बिखरना, जुड़ना और फिर बिखरना और फिर जुड़ना जारी है। 
हम ही चुकायेंगे अपने पुरखों की हार का बदला। 

Sunday, June 4, 2023

आँसू, स्मृति और यथार्थ

क्यों बहे थे आँसू? 

आँसुओं का स्रोत क्या है? 

बस अब बहे चले आते हैं। 


सोचकर देखा, जाना कि 

स्मृति और सपने उलझ गए हैं 

यथार्थ में। 

यथार्थ ही तर्क संगत है। 


बन्द रास्ता है जहाँ खड़ा हूँ। 

मैं अपने प्रतिद्वंदी की आलोचना करते करते खुद अपना प्रतिद्वंदी बन गया। 

विपरीत एक होते हैं। 

पाया कि उन्हें ही नहीं समझ पाया जिसे समझने का दावा था। 


बन्द रास्ते पर एक आईना रखा है।

अतीत झाँक रहा इस आईने में। 

मैं पीछे हटता हूँ। 


आँसुओं से भर जाता है पूरा शहर

मकान, सड़कें और घंटाघर सब डूब जाते हैं। 

थम जाते हैं। 

कोई ऊँची इमारत से खड़ा हो पढ़ रहा मेरी माँ की

हरे रंग की डायरी। 


उसने लिखा है

अकेलेपन से डर लगता है। 

नहीं, माँ जैसे नहीं जीना था जीवन

अकेले, घुटन भरे इंतज़ार और प्यार के बिना। 

साझा करने की थी कोशिश हमेशा ही

दुख, सुख और सपने। 


पर मैंने जाना कि 

उस डायरी का पन्ना हूँ मैं। 

रोज़ बदलती हैं इबारतें। 

यहाँ आता हूँ समय से वक़्त माँगकर। 


यथार्थ ही तर्क संगत है। 

प्रतिलिपि नहीं मैं प्रतिद्वंद्वी की। 

जो अभी यथार्थ नहीं काल्पनिक है तर्क संगत है, 

यथार्थ बन जायेगा। 


स्मृतियों में दरारे पड़ती हैं

सपने फिर पुनर्नवा होते हैं। 

पुराना मर जाता है, नया जन्मता है। 

यथार्थ अयथार्थ बन जाता है। 

आँसू तारे बन जाते हैं, 

बहते हैं, नष्ट होते हैं

स्मृतियाँ बनते हैं। 

यथार्थ से उलझकर उसे बदल देते हैं। 



Friday, June 2, 2023

इस बार...

इस बार जितनी गहरी है मेरी उदासी 

उतनी कभी न थी 

क्रोध, ज्यों जड़ीभूत अग्निपिण्ड ।

इस बार मेरी विरक्ति 

एक ठण्डी हिमशिला-सी अविचल है। 


कोई घट-बढ़ नहीं।

रुका हुआ है जैसे सब कुछ एक अर्से से । 

यह तनाव जो निरन्तर बना हुआ है 

पागल बना पाने में फिर भी

असफल है


 जो भी होगा

अब इसका नतीजा भीषण रूप से निर्णायक होगा।

एकदम नया होगा कुछ।

हवा जो एकदम रुक सी गयी है।

-शशि प्रकाश

Saturday, May 20, 2023

पहिया बदलते हुए

 

मैं सड़क की मेड़ पर बैठा हूँ

ड्राइवर पहिया बदलता है 

मैं उस जगह को पसन्द नहीं करता

जहाँ से आया हूँ 

उस जगह को भी नहीं जहाँ जा रहा हूँ

मैं क्यों इतना बेताब हो रहा हूँ 

उसे पहिया बदलते हुए देखकर ?

-ब्रेष्ट

Tuesday, May 16, 2023

The Last Bus


Midnight the last bus,

The tickets are bought.

There is no bad news waiting for me at home,

Nor is there a feast.

Seperation awaits me.

I walk towards separation fearless

And without sorrow.

I am very close to the great darkness.

I can watch the world now,

Calm and comfortable.

A friend's deception does not surprise me now,

The knife he stabs me with as he shakes my hand.

Useless, the enemy no longer scares me.

I have gone through the forest of fetishes

Chopping,

How easily they fell.

I looked again at my beliefs

Many thanks most of them were pure.

I had never felt so purified before,

Nor so free.

I am very close to the great darkness.

I can watch the world now,

Calm and comfortable.

I don't lift my head from my work and look,

From the past before me appear,

A word,

   A smell,

       A hand waiving,

The word is friendly,

   The smell is beautiful,

        It is my beloved waiving.

The invitation of memories no longer saddens me,

I have no complaints about memories,

There is nothing I have complaints about anyway,

Not even about my heart

That aches without end, like a huge tooth.

Nazim Hikmet

खोज

 एक बन्द रास्ते तक पहुँचा हूँ । 

कई बार आगे बढ़ने के लिए कुछ कदम पीछे हटना ही होता है। 

यहाँ से भी वापस मुड़ना ही है। 


एक ही जगह थमे रहना मुमकिन नहीं, रुकना और ठहरे रहना ही पतन है, 

कमज़ोर संकल्पों और समझौतों को आँसुओं और दुख से नहीं ढका जा सकता है। 

रास्ते खत्म हो तो भी आगे बढ़ना ही है,

पीछे मुड़कर पुनः बढ़ना होगा आगे ही। 

रक्त को मवाद से अलगाना है। 

काले को सफेद से। 

गलत को सही से। 


पीछे मुड़ते ही स्मृतियों और ख़्वाब के गहरे नीले जल में डूब जाता है शहर

माँ की डायरी से अकेलेपन की कथा कोई पढ़ रहा एक ऊँची इमारत से। 

वज़ीरपूर के मज़दूर गुज़र रहे मार्च बनाकर। 

हट रहा हूँ पीछे और आत्मा का एक हिस्सा नष्ट हो रहा। 

तेज़ाब मेरी आँखों से ही बह रहा। 

खुद में ही घुल रहा मैं, 

ख्वाबों और स्मृतियों में ढल रहा मेरा एक हिस्सा, 

अपने को गढ़ना ही होगा

जैसे सूरज से अलग हो धूँ धूँकर धधकती धरती ने गढ़ा जीवन। 

जो यह न कर सके वो इंतज़ार के कैदखानों को मुक्ति मानते 

रहे और अपने समझौतों पर मानवीयता का मुलम्मा चढ़ाते रहे। 


सिर्फ एक समझौता भी प्रतिबद्धता के पर्वत में दरार जैसा होता है

क्रान्तिकारी पक्षधर्ता के जहाज में सुराग जैसा

कितना ही छोटा हो सुराग 

जहाज को डुबा देता है, 

या सूक्ष्म हो दरार कितनी भी

पर्वत को गिरा देती है, 



इससे कौसों दूर सागर में डूबता है सूरज 

मैं रेत में खोज रहा हूँ अपना दिल। 






Monday, May 15, 2023

इश्क़ में हुआ हो भले धोखा

 इश्क़ में हुआ हो भले धोखा

हुस्नो-इश्क़ को

समझा नहीं कभी धोखा।

यूँ ही भरम कई हुए

ज़िन्दगी में,

पर ज़िन्दगी को कभी

भरम नहीं समझा।

जितना हारे

हार न मानने की ज़िद बढ़ती गई ।

-कात्यायनी

Tuesday, May 2, 2023

Past one o'clock

 Past one o’clock. You must have gone to bed.

The Milky Way streams silver through the night.

I’m in no hurry; with lightning telegrams

I have no cause to wake or trouble you.

And, as they say, the incident is closed.

Love’s boat has smashed against the daily grind.

Now you and I are quits. Why bother then

To balance mutual sorrows, pains, and hurts.

Behold what quiet settles on the world.

Night wraps the sky in tribute from the stars.

In hours like these, one rises to address

The ages, history, and all creation.

Maykovsky

Wednesday, March 29, 2023

टूटे ख्वाबों का तलछट

 


संशय नींद में घुलता रहा। 

सपनों को खाता रहा। 

लोहे के संकल्पों में अनिर्णय का जंग लग गया। 

सपने साकार हो भी खुद का निषेध कर लेते हैं 

या उन्हें संशय, अनिर्णय, अधूरे प्रयास और आलस खा नष्ट कर देते हैं। 

सपने पेड़ हैं, जंगल हैं, बादल हैं और कम्युनिज्म है। 

वक़्त की धारा बन जाते हैं सपने साकार हो या टूटकर मिट्टी में मिल जाते हैं। 


वक़्त की नदी इतिहास के केनवास पर रचती है भूदृश्य। 

इस नदी की तलहटी में जमे हैं टूटे ख़्वाब। 

केवल टूटे ख़्वाब ही नहीं स्मृतियाँ भी नदियों की तलहटी में जमती रही हैं। 

यह तलछट पहाडों, जीव जंतुओं और वनस्पति के अतीत और उनके पदार्थों से बना है। 

यह तलछट भी तय करता है नदी के प्रवाह और उसकी दिशा को। 


नष्ट तो गर्वीली चट्टानें भी होती हैं और मुरझाई शाखाएँ भी, 

नँगे तने और उसपर निचाट हो चुके चील के घोसले भी, 

हर किसी के नष्ट होने में ही उनका अर्थ है। 

पर कौन कैसे नष्ट हो यह अलग होता है, 

फैक्टरी की मशीन का लोहा भी घिसता है और जंग लगा 

 बेकार पुरजा भी। 

शरीर का हर अणु देदीप्यमान हो उठे या आदतों का गुलाम हो बीमार हो जाए। नष्ट तो यह भी होता है। 

सपनों, संकल्पों और इच्छाओं की तरह ही। 

Saturday, March 11, 2023

सच को सामने लाना होता है

 एक अँधेरे सीलन भरे कमरे में लेटा हूँ

सर दर्द और आँखों में जलन है। 

रोशनी की तीखी रेखाएँ खिड़की के आकार को उभार रही। 

अँधेरे में ही रोशनी का पथ दिख रहा

और वस्तुओं को उनका आकार मिल रहा। 

यूक्लिड और आइंस्टाइन भी इस पथ को और वस्तुओं के आकारों को ही अवलोकित करते रहे। 

राजनीतिक दिशा भी इस तरह ही अवलोकित होती है 

पीढ़ियों के संघर्षों से। 

सच निखरता है और उबरता है संघर्षों से ही। 

सच उबरता है कमजोर संकल्पों और

अधूरी इच्छाओं से खुद को अलग करता हुआ।

 

डॉक्टर कहता है आँख को दिमाग से जोड़ने वाली तंत्रिका 

घिस गयी है। 

क्या पूरे समाज की? 

चश्में लगाए  तो बहुत से लोग हैं 

और नज़र बदलने के चश्मे भरे हैं बाज़ार में। 

फिर भी रोशनी की तीखी लकीरें, उनका वक्र क्यों नहीं दिखता? 

सच क्यों नहीं दिखता? 

ये चश्मे सच न देखने के लिए ही बने हैं। 


रात के चमकते तारे, घुम्मकड ग्रह और चाँद 

सच्चे हैं। 

गेलिलियो की पड़ताल इसे पुष्ट करती है। 

आइंस्टाईन के प्रयोग इसे सिद्ध करते हैं। 

सच को उबारना होता है। 

उसकी पड़ताल करनी होती है। 


और इस तरह ही 

भूख, बेरोज़गारी और मुनाफ़े के सौदे भी नहीं दिखते, 

इन्हें भी दिखाना होता है। 

सच को बाहर लाना होता है।

Thursday, March 9, 2023

तीन रेखा चित्र

 


आत्मा में सुराख है

नैतिकता का बुरादा आसपास बिखरा है। 

गुलाब, ऑर्किड और बागन्विलिया से सजा हुआ है आँगन

पर मनहूसियत की बद्बु दूर नहीं होती। 


आत्मा पर कई पैबंद हैं, कई परते हैं

झूठ के गोंद के डब्बे का ढक्कन उल्टा पड़ा है

बड़े कमरे में पर्दे हैं काले और एक बड़ा लाल काँच का झूमर लटका है, रोशनी कम है

पर पाखण्ड न दिखे ऐसा हो नहीं पाता।   


नज़र को घुन लगी है

ढेर सारे विचारों के चश्मे हैं

किताबों की मीनारें हैं एक नदी के किनारे

चाँद के टुकड़े बिखर गिरते रहते हैं खून की नदी में, 

व्यवहार से ज्ञान कटा रहता है।