Tuesday, February 23, 2016

प्रोसेशन ('अँधेरे में' कविता का अंश )

(फासिस्ट कम्पनी ,1943 , फिलिप एवेरगूड )
प्रोसेशन? 
निस्तब्ध नगर के मध्य-रात्रि-अँधेरे में सुनसान 
किसी दूर बैण्ड की दबी हुई क्रमागत तान-धुन, 
मन्द-तार उच्च-निम्न स्वर-स्वप्न, 
उदास-उदास ध्वनि-तरंगें हैं गम्भीर, 
दीर्घ लहरियाँ!! 
गैलरी में जाता हूँ, देखता हूँ रास्ता 
वह कोलतार-पथ अथवा 
मरी हुई खिंची हुई कोई काली जिह्वा 
बिजली के द्युतिमान दिये या 
मरे हुए दाँतों का चमकदार नमूना!! 


किन्तु दूर सड़क के उस छोर 
शीत-भरे थर्राते तारों के अँधियाले तल में 
नील तेज-उद्भास 
पास-पास पास-पास 
आ रहा इस ओर! 
दबी हुई गम्भीर स्वर-स्वप्न-तरंगें, 
शत-ध्वनि-संगम-संगीत 
उदास तान-धुन 
समीप आ रहा!! 

और, अब 
गैस-लाइट-पाँतों की बिन्दुएँ छिटकीं, 
बीचों-बीच उनके 
साँवले जुलूस-सा क्या-कुछ दीखता!! 

और अब 
गैस-लाइट-निलाई में रँगे हुए अपार्थिव चेहरे, 
बैण्ड-दल, 
उनके पीछे काले-काले बलवान् घोड़ों का जत्था 
दीखता, 
घना व डरावना अवचेतन ही 
जुलूस में चलता। 
क्या शोभा-यात्रा 
किसी मृत्यु दल की? 

अजीब!! 
दोनों ओर, नीली गैस-लाइट-पाँत 
रही जल, रही जल। 
नींद में खोये हुए शहर की गहन अवचेतना में 
हलचल, पाताली तल में 
चमकदार साँपों की उड़ती हुई लगातार 
लकीरों की वारदात!! 
सब सोये हुए हैं। 
लेकिन, मैं जाग रहा, देख रहा 
रोमांचकारी वह जादुई करामात!! 

विचित्र प्रोसेशन, 
गम्भीर क्वीक मार्च.... 
कलाबत्तूवाला काला ज़रीदार ड्रेस पहने 
चमकदार बैण्ड-दल-- 
अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति 
आँतों के जाल से, बाजे वे दमकते हैं भयंकर 
गम्भीर गीत-स्वप्न-तरंगें 
उभारते रहते, 
ध्वनियों के आवर्त मँडराते पथ पर। 
बैण्ड के लोगों के चेहरे 
मिलते हैं मेरे देखे हुओं-से 
लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार 
इसी नगर के!! 
बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैण्ड-दल में! 
उनके पीछे चल रहा 
संगीत नोकों का चमकता जंगल, 
चल रही पदचाप, ताल-बद्ध दीर्घ पाँत 
टेंक-दल, मोर्टार, ऑर्टिलरी, सन्नद्ध, 
धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना, 
सैनिकों के पथराये चेहरे 
चिढ़े हुए, झुलसे हुए, बिगड़े हुए गहरे! 
शायद, मैंने उन्हे पहले भी तो कहीं देखा था। 
शायद, उनमें कई परिचित!! 
उनके पीछे यह क्या!! 
कैवेलरी! 
काले-काले घोड़ों पर ख़ाकी मिलिट्री ड्रेस, 
चेहरे का आधा भाग सिन्दूरी-गेरुआ 
आधा भाग कोलतारी भैरव, 
आबदार!! 
कन्धे से कमर तक कारतूसी बेल्ट है तिरछा। 
कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तोल, 
रोष-भरी एकाग्रदृष्टि में धार है, 
कर्नल, बिग्रेडियर, जनरल, मॉर्शल 
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष 
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते, 
उनके चित्र समाचारपत्रों में छपे थे, 
उनके लेख देखे थे, 
यहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं 
भई वाह! 
उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि-गण 
मन्त्री भी, उद्योगपति और विद्वान 
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात 
डोमाजी उस्ताद 
बनता है बलवन 
हाय, हाय!! 
यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय। 
भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब 
साफ़ उभर आया है, 
छिपे हुए उद्देश्य 
यहाँ निखर आये हैं, 
यह शोभायात्रा है किसी मृत-दल की। 
विचारों की फिरकी सिर में घूमती है 
इतने में प्रोसेशन में से कुछ मेरी ओर 
आँखें उठीं मेरी ओर-भर 
हृदय में मानो कि संगीन नोंकें ही घुस पड़ीं बर्बर, 
सड़क पर उठ खड़ा हो गया कोई शोर-- 
"मारो गोली, दाग़ो स्साले को एकदम 
दुनिया की नज़रों से हटकर 
छिपे तरीक़े से 
हम जा रहे थे कि 
आधीरात--अँधेरे में उसने 
देख लिया हमको 
व जान गया वह सब 
मार डालो, उसको खत्म करो एकदम" 
रास्ते पर भाग-दौड़ थका-पेल!! 
गैलरी से भागा मैं पसीने से शराबोर!! 

एकाएक टूट गया स्वप्न व छिन्न-भिन्न हो गये 
सब चित्र 
जागते में फिर से याद आने लगा वह स्वप्न, 
फिर से याद आने लगे अँधेरे में चेहरे, 
और, तब मुझे प्रतीत हुआ भयानक 
गहन मृतात्माएँ इसी नगर की 
हर रात जुलूस में चलतीं, 
परन्तु दिन में 
बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र 
विभिन्न दफ़्तरों-कार्यालयों, केन्द्रों में, घरों में। 

हाय, हाय! मैंने उन्हे दैख लिया नंगा, 
इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी।

-मुक्तिबोध 

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