मैं सड़क की मेड़ पर बैठा हूँ
ड्राइवर पहिया बदलता है
मैं उस जगह को पसन्द नहीं करता
जहाँ से आया हूँ
उस जगह को भी नहीं जहाँ जा रहा हूँ
मैं क्यों इतना बेताब हो रहा हूँ
उसे पहिया बदलते हुए देखकर ?
-ब्रेष्ट
मैं सड़क की मेड़ पर बैठा हूँ
ड्राइवर पहिया बदलता है
मैं उस जगह को पसन्द नहीं करता
जहाँ से आया हूँ
उस जगह को भी नहीं जहाँ जा रहा हूँ
मैं क्यों इतना बेताब हो रहा हूँ
उसे पहिया बदलते हुए देखकर ?
-ब्रेष्ट
Midnight the last bus,
The tickets are bought.
There is no bad news waiting for me at home,
Nor is there a feast.
Seperation awaits me.
I walk towards separation fearless
And without sorrow.
I am very close to the great darkness.
I can watch the world now,
Calm and comfortable.
A friend's deception does not surprise me now,
The knife he stabs me with as he shakes my hand.
Useless, the enemy no longer scares me.
I have gone through the forest of fetishes
Chopping,
How easily they fell.
I looked again at my beliefs
Many thanks most of them were pure.
I had never felt so purified before,
Nor so free.
I am very close to the great darkness.
I can watch the world now,
Calm and comfortable.
I don't lift my head from my work and look,
From the past before me appear,
A word,
A smell,
A hand waiving,
The word is friendly,
The smell is beautiful,
It is my beloved waiving.
The invitation of memories no longer saddens me,
I have no complaints about memories,
There is nothing I have complaints about anyway,
Not even about my heart
That aches without end, like a huge tooth.
Nazim Hikmet
एक बन्द रास्ते तक पहुँचा हूँ ।
कई बार आगे बढ़ने के लिए कुछ कदम पीछे हटना ही होता है।
यहाँ से भी वापस मुड़ना ही है।
एक ही जगह थमे रहना मुमकिन नहीं, रुकना और ठहरे रहना ही पतन है,
कमज़ोर संकल्पों और समझौतों को आँसुओं और दुख से नहीं ढका जा सकता है।
रास्ते खत्म हो तो भी आगे बढ़ना ही है,
पीछे मुड़कर पुनः बढ़ना होगा आगे ही।
रक्त को मवाद से अलगाना है।
काले को सफेद से।
गलत को सही से।
पीछे मुड़ते ही स्मृतियों और ख़्वाब के गहरे नीले जल में डूब जाता है शहर
माँ की डायरी से अकेलेपन की कथा कोई पढ़ रहा एक ऊँची इमारत से।
वज़ीरपूर के मज़दूर गुज़र रहे मार्च बनाकर।
हट रहा हूँ पीछे और आत्मा का एक हिस्सा नष्ट हो रहा।
तेज़ाब मेरी आँखों से ही बह रहा।
खुद में ही घुल रहा मैं,
ख्वाबों और स्मृतियों में ढल रहा मेरा एक हिस्सा,
अपने को गढ़ना ही होगा
जैसे सूरज से अलग हो धूँ धूँकर धधकती धरती ने गढ़ा जीवन।
जो यह न कर सके वो इंतज़ार के कैदखानों को मुक्ति मानते
रहे और अपने समझौतों पर मानवीयता का मुलम्मा चढ़ाते रहे।
सिर्फ एक समझौता भी प्रतिबद्धता के पर्वत में दरार जैसा होता है
क्रान्तिकारी पक्षधर्ता के जहाज में सुराग जैसा
कितना ही छोटा हो सुराग
जहाज को डुबा देता है,
या सूक्ष्म हो दरार कितनी भी
पर्वत को गिरा देती है,
इससे कौसों दूर सागर में डूबता है सूरज
मैं रेत में खोज रहा हूँ अपना दिल।
इश्क़ में हुआ हो भले धोखा
हुस्नो-इश्क़ को
समझा नहीं कभी धोखा।
यूँ ही भरम कई हुए
ज़िन्दगी में,
पर ज़िन्दगी को कभी
भरम नहीं समझा।
जितना हारे
हार न मानने की ज़िद बढ़ती गई ।
-कात्यायनी
Past one o’clock. You must have gone to bed.
The Milky Way streams silver through the night.
I’m in no hurry; with lightning telegrams
I have no cause to wake or trouble you.