Tuesday, December 6, 2016

दिशा है सामने एक धुंधली पथरेखा की तरह

 दिशा है सामने एक धुँधली पथरेखा की तरह
और लगातार स्‍पष्‍ट होती दृष्टि भी ।
चीज़ों को इस हद तक पहचाना जा सकता है
कि आशाओं का स्रोत अक्षय रहे
लेकिन फिर भी बहुतेरी समस्‍याएँ हैं
नित नई आती हुई और कुछ अतीत की विरासत भी,
कि नया अभियान नहीं बन पा रहा है ऊर्जस्‍वी, गतिमान ।

अभी भी आस-पास हैं झूठे कमज़ोर संकल्‍प
और खोखले वायदे,
और अविश्‍वास,
और पुराने मताग्रह और पुरानी आदतें,
और भ्रमित करने वाले अप्रत्‍याशित बदलाव भी,
जो तुम्‍हें लगभग अकेला कर देती हैं
और भीषण तनाव पैदा करती हैं तुम्‍हारे भीतर,
ज्‍यों धनुष की प्रत्‍यंचा की तरह
खिंच गई हो मस्तिष्‍क की एक-एक शिरा ।
तुम लौटते हो फिर-फिर
अपने एकान्‍त, उदासियों, अनिद्रा भरी रातों
और घुटन भरे अमूर्तनों के पास,
लेकिन गुफा में घुसते एकाकी योगी की तरह नहीं
बल्कि अपने खाली डोलों को लेकर
कुएँ में उतरती उस रहट की तरह
जो पानी लेकर ऊपर आती है
और डोलों को चुण्‍डे में उलट देती है ।

मानचित्र तैयार है लगभग यात्रा-पथ का,
लेकिन कड़वी पराजयों से उपजी दार्शनिकताओं,
अतृप्तियों-अधूरेपन से जन्‍मी विकृतियों,
पुरातन और नूतन कूपमण्‍डूकताओं,
आसमानी आभा वाली आध्‍यात्मिक वंचनाओं,
शयनकक्षों में रखी गई
पिस्‍तौलों और विष के प्‍यालों से भरे
हमारे इस विचित्र विकट समय में
चीज़ें फिर भी काफ़ी कठिन हैं।
चन्‍द राहत या सुकून के दिन आते भी हैं
तो देखते-देखते यूँ बीत जाते हैं
जैसे वीरान खेतों के बीच से
भागती नीलगायों का एक झुण्‍ड गुज़र जाए ।
-शशिप्रकाश 
(स्वगत कविता का अंश)

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