संशय नींद में घुलता रहा।
सपनों को खाता रहा।
लोहे के संकल्पों में अनिर्णय का जंग लग गया।
सपने साकार हो भी खुद का निषेध कर लेते हैं
या उन्हें संशय, अनिर्णय, अधूरे प्रयास और आलस खा नष्ट कर देते हैं।
सपने पेड़ हैं, जंगल हैं, बादल हैं और कम्युनिज्म है।
वक़्त की धारा बन जाते हैं सपने साकार हो या टूटकर मिट्टी में मिल जाते हैं।
वक़्त की नदी इतिहास के केनवास पर रचती है भूदृश्य।
इस नदी की तलहटी में जमे हैं टूटे ख़्वाब।
केवल टूटे ख़्वाब ही नहीं स्मृतियाँ भी नदियों की तलहटी में जमती रही हैं।
यह तलछट पहाडों, जीव जंतुओं और वनस्पति के अतीत और उनके पदार्थों से बना है।
यह तलछट भी तय करता है नदी के प्रवाह और उसकी दिशा को।
नष्ट तो गर्वीली चट्टानें भी होती हैं और मुरझाई शाखाएँ भी,
नँगे तने और उसपर निचाट हो चुके चील के घोसले भी,
हर किसी के नष्ट होने में ही उनका अर्थ है।
पर कौन कैसे नष्ट हो यह अलग होता है,
फैक्टरी की मशीन का लोहा भी घिसता है और जंग लगा
बेकार पुरजा भी।
शरीर का हर अणु देदीप्यमान हो उठे या आदतों का गुलाम हो बीमार हो जाए। नष्ट तो यह भी होता है।
सपनों, संकल्पों और इच्छाओं की तरह ही।