एक अँधेरे सीलन भरे कमरे में लेटा हूँ
सर दर्द और आँखों में जलन है।
रोशनी की तीखी रेखाएँ खिड़की के आकार को उभार रही।
अँधेरे में ही रोशनी का पथ दिख रहा
और वस्तुओं को उनका आकार मिल रहा।
यूक्लिड और आइंस्टाइन भी इस पथ को और वस्तुओं के आकारों को ही अवलोकित करते रहे।
राजनीतिक दिशा भी इस तरह ही अवलोकित होती है
पीढ़ियों के संघर्षों से।
सच निखरता है और उबरता है संघर्षों से ही।
सच उबरता है कमजोर संकल्पों और
अधूरी इच्छाओं से खुद को अलग करता हुआ।
डॉक्टर कहता है आँख को दिमाग से जोड़ने वाली तंत्रिका
घिस गयी है।
क्या पूरे समाज की?
चश्में लगाए तो बहुत से लोग हैं
और नज़र बदलने के चश्मे भरे हैं बाज़ार में।
फिर भी रोशनी की तीखी लकीरें, उनका वक्र क्यों नहीं दिखता?
सच क्यों नहीं दिखता?
ये चश्मे सच न देखने के लिए ही बने हैं।
रात के चमकते तारे, घुम्मकड ग्रह और चाँद
सच्चे हैं।
गेलिलियो की पड़ताल इसे पुष्ट करती है।
आइंस्टाईन के प्रयोग इसे सिद्ध करते हैं।
सच को उबारना होता है।
उसकी पड़ताल करनी होती है।
और इस तरह ही
भूख, बेरोज़गारी और मुनाफ़े के सौदे भी नहीं दिखते,
इन्हें भी दिखाना होता है।
सच को बाहर लाना होता है।
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