आत्मा में सुराख है
नैतिकता का बुरादा आसपास बिखरा है।
गुलाब, ऑर्किड और बागन्विलिया से सजा हुआ है आँगन
पर मनहूसियत की बद्बु दूर नहीं होती।
आत्मा पर कई पैबंद हैं, कई परते हैं
झूठ के गोंद के डब्बे का ढक्कन उल्टा पड़ा है
बड़े कमरे में पर्दे हैं काले और एक बड़ा लाल काँच का झूमर लटका है, रोशनी कम है
पर पाखण्ड न दिखे ऐसा हो नहीं पाता।
नज़र को घुन लगी है
ढेर सारे विचारों के चश्मे हैं
किताबों की मीनारें हैं एक नदी के किनारे
चाँद के टुकड़े बिखर गिरते रहते हैं खून की नदी में,
व्यवहार से ज्ञान कटा रहता है।
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