Sunday, September 3, 2023

अतीत के टुकड़े

आकाश का नीलापन आँधी के अँधेरे में नहीं दिख रहा
बरस रहा अतीत टुकड़ों टुकड़ों में ज़मीन पर, 
पुरखों के क़िस्से, अधजले चित्र
खण्डहर और घुन खाये उपन्यास 
बिखरे हैं आसपास। 
आँख खुली स्वप्न टूटा 
पर नमी है आँखों में
अभी भी सपनों के बोझ की। 

चित्र, उपन्यास, कविताओं के टुकड़े 
शहर के कबाड़खानों में बिक रहे, 
नई सड़क से उजड़ी दुकानों पर बिक रही अभी भी किलो के भाव युद्ध और शांति, अन्ना और साथ में तुल रही हो नित्शे की ज़रथुस्ता। 

बिनता रहता हूँ ज़मीन पर पड़े अतीत के टुकड़े
तो कभी मंडी में लग रही बोली से बचा कर ले आता हूँ 
तर्क शास्त्र, सौंदर्य और राजनीति की विरासत। 
सीलना है इन्हें अपने अनुभव की ऊन में। 
खुद को समझना है 
और बदलना है
अतीत की रौशनी में
भविष्य की कल्पना में
और आज के प्रयोगों की परखनली में। 
बिखरना, जुड़ना और फिर बिखरना और फिर जुड़ना जारी है। 
हम ही चुकायेंगे अपने पुरखों की हार का बदला। 

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