Tuesday, November 20, 2012

भूलना नहीं है


यह अँधेरा
कालिख की तरह
स्मृतियों पर छा जाना चाहता है।
यह सपनों की ज़मीं को
बंजर बना देना चाहता है।
यह उम्मीद के अंखुवों को
कुतर देना चाहता है।
इसलिए जागते रहना है,
स्मृतियों की स्लेट को
को पोंछते रहना है।
भूलना नहीं है
मानवीय इच्छाओं  को।
भूलना नहीं है कि
सबसे बुनियादी ज़रूरतें क्या हैं और क्या हैं हमारे लिए
गैरज़रूरी, जिन्हें लगातार
हमारे लिए सबसे ज़रूरी बताया जा रहा है।
भूलना नहीं है कि
अभी भी हैं भूख और बदहाली,
अभी भी हैं लूट और सौदागरी और महाजनी
और जेल और फांसी और कोड़े।
भूलना नहीं है कि
ये सारी चीज़ें अगर हमेशा से नहीं रही हैं
तो हमेशा नहीं रहेंगी।
भूलना नहीं है शब्दों के
वास्तविक अर्थों को
और यह कि अभी भी
कविता की ज़रुरत है
और अभी भी लड़ना उतना ही ज़रूरी है।
हमें उस ज़मीन की निराई-गुड़ाई करनी है,
दीमकों से बचाना है
जहाँ अँकुरायेंगी उम्मीदें
जहाँ सपने जागेंगे भोर होते ही,
स्मृतियाँ नयी कल्पनाओं को पंख देंगी
प्रतिक्षाएं फलीभूत होंगी
योजनाओं में और अँधेरे की चादर फाड़कर
एकदम सामने आ खड़ी होगी
एक मुक्कमल नयी दुनिया।

शशि प्रकाश
(25 दिसंबर 1996) 

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