Wednesday, November 21, 2012

हम लोग लौटेंगे


प्यारे फलीस्तीन 
मैं कैसे सो सकता हूँ 
मेरी आँखों में यातना की परछाई है 
तेरे नाम से मैं अपनी दुनिया संवारता हूँ 
और मैं अपनी भावनाओं को 
छुपाकर ही रखता दिनों के काफिले गुजरते हैं और बातें करते हैं 
दुश्मनों और दोस्तों के साजिशों की 
प्यारे फलीस्तीन 
मैं कैसे जी सकता हूँ 
तेरे टीलों और मैदानों से दूर 
खून से रँगे 
पहाड़ों की तलहटी 
मुझे बुला रही है 
और क्षितिज पर वह रंग फ़ैल रहा है 
हमारे समुद्र तट रो रहे हैं 
और मुझे बुला रहे हैं 
और हमारा रोना समय के कानों में गूंजता है 
भागते हुए झरने मुझे बुला रहे हैं 
वे अपने ही देश में परदेसी हो गए हैं 
तेरे यतीम शहर मुझे बुला रहे हैं
और तेरे गाँव और गुंबद 
मेरे दोस्त पूछते हैं-
'क्या हम फिर मिलेंगे?'
'हम लोग लौटेंगे?'
हाँ, हम लोग उस सजल आत्मा को चूमेंगे 
और हमारी जीवंत इच्छाएं 
हमारे होठों पर हैं कल हम लौटेंगे 
और पीढियां सुनेंगी हमारे क़दमों की आवाज़ 
हम लौटेंगे आँधियों के साथ 
बिजलियों और उल्काओं के साथ 
हम लौटेंगे 
अपनी आशा और गीतों के साथ 
उठते हुए बाज के साथ 
पौ फटने के साथ 
जो रेगिस्तानों पर मुस्कराती है 
समुद्र की लहरों पर नाचती सुबह के साथ
खून से सने झंडों के साथ 
और चमकती तलवारों के साथ 
और लपकते बरछों के साथ
 हम लौटेंगे

अबू सलमा 

No comments:

Post a Comment