अधूरे ख़्वाब जल रहे।
जैसे कोई ग़रीब शमशान से दूर
नदी किनारे जला रहा हो
किसी अपने के मृत शरीर को।
अतीत जल रहा,
इसकी दास्ताँ यूँ है,
एक ख़्वाब था
बादलों में रेशम बाँधना था,
दिल के रंग भरने थे,
पर अहसास हुआ
कि बादल में खँजर धँसा है,
ख़्वाब टूट रहा,
रंग चीखते हुए गिरते हैं आसमाँ से।
सहसा गुमान होता है कि
ख़्वाब ही था, सच नहीं।
क्यों आये यहाँ, शायद भूल से?
क्या एक गलती थे, प्रवृत्ति बने
और आँसू बनकर बिखर गए?
जवाब मिलता नहीं।
आँख खुली तो समुद्र किनारे थे तुम।
एक घोड़े पर सवार, घायल
जा रहे चाँद की ओर।
लोर्का की कविता भूदृश्य बन रही,
मैंने सच को नहीं छोड़ा
कविता पर भरोसा कायम है,
पर बेयकीनी ही तो दस्तूर है।
ख़्वाब ही तो सच बनाने हैं।
दस्तूर बदलना है यही तो दावा है।
टकरा रहे दोनों तो उदासी क्यों है?
उदासी है और उसका तर्क भी है।
सफ़र जारी है,
समुद्र का नमकीन पानी
किनारे के पत्थरों पर उफनता रहता है,
टूटे ख़्वाब का सबक दिल में लिए जाग उठता हूँ मैं।
क्षितिज पर टंगा चाँद धोख़ा नहीं है।
दुनिया छलावा नहीं।
मिथक बनाकर काबू पाने के लिए है नहीं दुनिया।
बदलने की प्रक्रिया में ही समझ हासिल होगी।
झूठ और परिस्थितियों का हवाला देने में नहीं,
अपनी कमजोरियों और पराजयों को स्वीकारने में ही हिम्मत है।
रास्ता अभी लम्बा है।
अतीत जलेगा, राख बनेगा।
भविष्य रौशन करेगा।